जब कोई इमारत दरकने लगती है तो उसकी दरारों में से कीड़े-मकोड़े निकलने शुरू हो जाते हैं। पश्चिम बंगाल में ऐसा ही कुछ नजर आ रहा है। गत माह कोलकाता की गलियों में गुंडागर्दी के शर्मनाक प्रदर्शन की जो तस्वीर दुनिया के सामने आई है उसमें यह साफ-साफ नजर आया कि माकपा के हाथ से एक ऐसे राज्य का नियंत्रण निकल रहा है जिस पर उसने अनवरत 30 सालों तक शासन किया है। कार्यकर्ताओं द्वारा नंदीग्राम पर पुन: कब्जा जमाना यदि ग्रामीण समुदाय के कोने-कोने में पार्टी के प्रभुत्व को स्थापित करने का एक हताशा भरा प्रयास था तो राज्य सरकार द्वारा तसलीमा नसरीन को कोलकाता से बाहर निकालना उन प्रतिगामी शक्तियों के फिर से हावी हो जाने का प्रमाण था जिनको माकपा व्यवस्थित तरीके से पोषित करती रही है। ऐसा आभास होता है कि राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए माकपा पूरे घटनाक्रम से संबद्ध नुकसान अर्थात बंगाली भद्रलोक से पार्टी के अलगाव को भी स्वीकार करने को तैयार है।
पार्टी की बुनियादी मान्यताओं पर समग्र दृष्टिपात किए बिना ही घड़ी की सुई को पीछे खींचने की कोशिश के संबंध में किसी मत पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी। सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाच्योव तो असफल रहे, किंतु चीन में देंग जियाबिंग ने कामयाबी हासिल की। फिर भी यह स्पष्ट नजर आता है कि उदार हिंदू परिकल्पना के संदर्भ में कम्युनिस्टों के संकल्प को तगड़ा झटका लगा है। बौद्धिक जगत-कला, शिक्षाविद् और मीडिया पर प्रभाव के कारण ही राष्ट्रीय जीवन में वाम दल मिथ्या साख बनाने में कामयाब हुए। नंदीग्राम प्रकरण और तसलीमा के निष्कासन के बाद वाम दल खुद को देवतुल्य बताने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उनके मुंह से बदबू निकल रही है। तसलीमा के विरोध में दंगा-फसाद और तदनुपरांत कोलकाता से उनके निष्कासन को कम कर नहीं आंकना चाहिए।
करीब 17 सालों से वामपंथियों के विद्वान सिद्धांतकार हिंदू सांप्रदायिकता को दुश्मन नंबर एक घोषित करते रहे हैं। तभी से माकपा मुस्लिम समाज की प्रतिगामी शक्तियों को बढ़ावा दे रही है। पहले तो माकपा भाजपा की उभरती शक्ति के भय का शिकार बनी तथा इसके बाद अमेरिका विरोध के नाम पर उसने खुद को तथाकथित मुस्लिम पुनरोद्धार के आत्मघाती शिकंजे में फंसा लिया। पश्चिम बंगाल में यह दूसरे रूप में सामने आया है-ठीक उसी तरह जैसे घुसपैठ के कारण सीमांत जिलों का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। राजग शासन के दौरान माकपा नेताओं ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के निष्कासन को जबरन रोक दिया था। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सार्वजनिक रूप से इस पर खेद प्रकट किया कि उन्होंने राज्य के मदरसों के बारे में यह टिप्पणी करने का साहस दिखाया था कि उन्हें आधुनिकता और देशभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। इराक और इजरायल के खिलाफ आत्मघाती हमलावरों को महिमामंडित करने और अमेरिका के साथ सामरिक साझेदारियों के विरोध में देश के अन्य इलाकों में माकपा ने मुल्लाओं के साथ गठजोड़ कर लिया है। तसलीमा के सवाल पर माकपा ने एक बार फिर उन्हीं शक्तियों का साथ दिया है। तसलीमा की पुस्तक पर लगे प्रतिबंध को उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिए जाने के बावूजद माकपा ने उस पर फिर से प्रतिबंध लगा दिया। माकपा ने तो उस बंगाली पत्रिका पर भी प्रतिबंध लगा दिया, जिसने पंथ की आलोचना के तसलीमा के अधिकार की वकालत की थी। माकपा ने तसलीमा को वीजा जारी न करने के लिए केंद्र को तैयार करने का भी प्रयास किया। अंतत: उन्हें पश्चिम बंगाल से निष्कासित कर माकपा ने नरेंद्र मोदी को एक जबरदस्त मुद्दा थमा दिया।
क्या अनीश्वरवादी कम्युनिस्टों और खुद को मुजाहिदीन बताने वालों के बीच इस असंगत संबंध से आंखें फेरी जा सकती हैं? अपनी हिफाजत के लिए इस्लामिक कट्टरपंथी पिछले करीब दो दशकों से माकपा के साथ मैत्री बढ़ाने में लगे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पश्चिम बंगाल में अब बांग्लादेश आधारित जेहादी संगठनों के विस्तार केंद्र खुल रहे हैं। मुस्लिम कट्टरवादियों की राज्य प्रशासन के साथ एक गोपनीय समझबूझ विकसित हो गई है कि वे प्रदेश में कोई बखेड़ा खड़ा नहींकरेंगे। कभी-कभार इसका उल्लंघन जरूर हुआ है, लेकिन वह बहुत मामूली घटनाओं तक ही सीमित रहा, कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल में जेहादी गुट ऐसा कुछ नहीं करते जिससे राज्य सरकार अस्थिर हो। मुसलमानों की अलगाववादी राजनीति, जिसके कारण पाकिस्तान का गठन हुआ, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जारी है। पश्चिम बंगाल में हुए हंगामे का एक कारण मुस्लिम समुदाय में हो रही हलचल है। वहां मुसलमानों का संपन्न तबका राजनीतिक हिस्सेदारी हासिल करने के लिए उतावला है। माकपा के पास वह ढांचा और लचीलापन नहीं है जिस पर उनकी उम्मीदें खरी उतर सकें। माकपा का ढांचा ऐसा है कि केवल कार्ड होल्डर कामरेड ही वास्तव में ताकतवर हो सकते हैं। हालांकि अब मुस्लिम नेतृत्व यह मानता है कि उसके पास समुदाय द्वारा तयशुदा मुद्दों पर सार्वजनिक जीवन में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त जनसांख्यिकीय क्षमता है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी करीब 30 फीसदी है। बांग्लादेश की सीमा से लगे लगभग सभी जिलों में मुसलमान या तो बहुसंख्यक हैं या इसके करीब हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीति एक रोचक मोड़ पर है। फिलहाल, माकपा ने येन-केन-प्रकारेण अपना नियंत्रण जमा लिया है। अलगाववादी मुस्लिम गुट अब अपनी आबादी के अनुपात में सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। बंगाल द्वारा राहत की सांस लेने के साठ साल बाद अलगाववादी राजनीति जबरदस्त तरीके से वापस लौट रही है।
पार्टी की बुनियादी मान्यताओं पर समग्र दृष्टिपात किए बिना ही घड़ी की सुई को पीछे खींचने की कोशिश के संबंध में किसी मत पर पहुंचना अभी जल्दबाजी होगी। सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाच्योव तो असफल रहे, किंतु चीन में देंग जियाबिंग ने कामयाबी हासिल की। फिर भी यह स्पष्ट नजर आता है कि उदार हिंदू परिकल्पना के संदर्भ में कम्युनिस्टों के संकल्प को तगड़ा झटका लगा है। बौद्धिक जगत-कला, शिक्षाविद् और मीडिया पर प्रभाव के कारण ही राष्ट्रीय जीवन में वाम दल मिथ्या साख बनाने में कामयाब हुए। नंदीग्राम प्रकरण और तसलीमा के निष्कासन के बाद वाम दल खुद को देवतुल्य बताने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उनके मुंह से बदबू निकल रही है। तसलीमा के विरोध में दंगा-फसाद और तदनुपरांत कोलकाता से उनके निष्कासन को कम कर नहीं आंकना चाहिए।
करीब 17 सालों से वामपंथियों के विद्वान सिद्धांतकार हिंदू सांप्रदायिकता को दुश्मन नंबर एक घोषित करते रहे हैं। तभी से माकपा मुस्लिम समाज की प्रतिगामी शक्तियों को बढ़ावा दे रही है। पहले तो माकपा भाजपा की उभरती शक्ति के भय का शिकार बनी तथा इसके बाद अमेरिका विरोध के नाम पर उसने खुद को तथाकथित मुस्लिम पुनरोद्धार के आत्मघाती शिकंजे में फंसा लिया। पश्चिम बंगाल में यह दूसरे रूप में सामने आया है-ठीक उसी तरह जैसे घुसपैठ के कारण सीमांत जिलों का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। राजग शासन के दौरान माकपा नेताओं ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के निष्कासन को जबरन रोक दिया था। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सार्वजनिक रूप से इस पर खेद प्रकट किया कि उन्होंने राज्य के मदरसों के बारे में यह टिप्पणी करने का साहस दिखाया था कि उन्हें आधुनिकता और देशभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। इराक और इजरायल के खिलाफ आत्मघाती हमलावरों को महिमामंडित करने और अमेरिका के साथ सामरिक साझेदारियों के विरोध में देश के अन्य इलाकों में माकपा ने मुल्लाओं के साथ गठजोड़ कर लिया है। तसलीमा के सवाल पर माकपा ने एक बार फिर उन्हीं शक्तियों का साथ दिया है। तसलीमा की पुस्तक पर लगे प्रतिबंध को उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिए जाने के बावूजद माकपा ने उस पर फिर से प्रतिबंध लगा दिया। माकपा ने तो उस बंगाली पत्रिका पर भी प्रतिबंध लगा दिया, जिसने पंथ की आलोचना के तसलीमा के अधिकार की वकालत की थी। माकपा ने तसलीमा को वीजा जारी न करने के लिए केंद्र को तैयार करने का भी प्रयास किया। अंतत: उन्हें पश्चिम बंगाल से निष्कासित कर माकपा ने नरेंद्र मोदी को एक जबरदस्त मुद्दा थमा दिया।
क्या अनीश्वरवादी कम्युनिस्टों और खुद को मुजाहिदीन बताने वालों के बीच इस असंगत संबंध से आंखें फेरी जा सकती हैं? अपनी हिफाजत के लिए इस्लामिक कट्टरपंथी पिछले करीब दो दशकों से माकपा के साथ मैत्री बढ़ाने में लगे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पश्चिम बंगाल में अब बांग्लादेश आधारित जेहादी संगठनों के विस्तार केंद्र खुल रहे हैं। मुस्लिम कट्टरवादियों की राज्य प्रशासन के साथ एक गोपनीय समझबूझ विकसित हो गई है कि वे प्रदेश में कोई बखेड़ा खड़ा नहींकरेंगे। कभी-कभार इसका उल्लंघन जरूर हुआ है, लेकिन वह बहुत मामूली घटनाओं तक ही सीमित रहा, कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल में जेहादी गुट ऐसा कुछ नहीं करते जिससे राज्य सरकार अस्थिर हो। मुसलमानों की अलगाववादी राजनीति, जिसके कारण पाकिस्तान का गठन हुआ, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जारी है। पश्चिम बंगाल में हुए हंगामे का एक कारण मुस्लिम समुदाय में हो रही हलचल है। वहां मुसलमानों का संपन्न तबका राजनीतिक हिस्सेदारी हासिल करने के लिए उतावला है। माकपा के पास वह ढांचा और लचीलापन नहीं है जिस पर उनकी उम्मीदें खरी उतर सकें। माकपा का ढांचा ऐसा है कि केवल कार्ड होल्डर कामरेड ही वास्तव में ताकतवर हो सकते हैं। हालांकि अब मुस्लिम नेतृत्व यह मानता है कि उसके पास समुदाय द्वारा तयशुदा मुद्दों पर सार्वजनिक जीवन में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त जनसांख्यिकीय क्षमता है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी करीब 30 फीसदी है। बांग्लादेश की सीमा से लगे लगभग सभी जिलों में मुसलमान या तो बहुसंख्यक हैं या इसके करीब हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीति एक रोचक मोड़ पर है। फिलहाल, माकपा ने येन-केन-प्रकारेण अपना नियंत्रण जमा लिया है। अलगाववादी मुस्लिम गुट अब अपनी आबादी के अनुपात में सत्ता में भागीदारी चाहते हैं। बंगाल द्वारा राहत की सांस लेने के साठ साल बाद अलगाववादी राजनीति जबरदस्त तरीके से वापस लौट रही है।
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