जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते है तो साधारणतया वे पंथनिरपेक्षता का समर्थन करते है, किंतु जैसे ही उनकी संख्या एक सीमा से बढ़ जाती है तो लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता जैसे मूल्य 'कुफ्र' हो जाते है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने गांधी जयंती के अवसर पर एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ''..गांधी दर्शन ही प्रगति का मार्ग है।'' यह बात वहां के मुसलमानों को रास नहीं आई। कश्मीर के मुफ्ती बशीरुद्दीन ने इसकी कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ''गांधी अपने समुदाय के लिए प्रासंगिक हो सकते है, किंतु मुसलमानों के लिए केवल पैगंबर साहब ही अनुकरणीय है।'' मुफ्ती ने आजाद से 'इस्लाम विरोधी' टिप्पणी के लिए प्रायश्चित करने को कहा है। गांधी जी ने मुस्लिमों की हर उचित-अनुचित मांगों का समर्थन किया। कठमुल्लों से प्रभावित मुस्लिम समाज को संतुष्ट करने के लिए खिलाफत आंदोलन में कांग्रेस को भी घसीट ले गए, किंतु वह जीवनपर्यत मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत पाए। स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भागीदारी नाम मात्र की थी। पाकिस्तान के निर्माण तक अधिकांश मुसलमानों ने अपना समर्थन अपने दीन की पार्टी-मुस्लिम लीग को ही दिया। विभाजन के साथ खंडित भारत में तमाम लीगी नेताओं ने रातोंरात कांग्रेस का पंथनिरपेक्षता का चोला पहन लिया, क्योंकि विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों का जनसंख्या अनुपात आधे से भी कम रह गया था। कश्मीर में मुसलमानों ने गांधी जी के बारे में जो कहा उसमें कुछ नया नहीं है।लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में सन 1924 में मुस्लिम नेता मोहम्मद अली ने कहा था, ''मिस्टर गांधी का चरित्र कितना भी पाक क्यों नहीं हो, मेरे लिए मजहबी दृष्टि से वह किसी भी मुसलमान से हेय है।. हां, मेरे मजहब के अनुसार मिस्टर गांधी को किसी भी दुराचारी और पतित मुसलमान से हेय मानता हूं।'' आज शेष भारत में तो गांधी जी मुसलमानों और 'सेकुलरिस्टों' के लिए आदर्श है,परंतु जम्मू-कश्मीर में केवल 'काफिर' मात्र। क्यों? इस बात में दो राय नहीं कि किसी भी समुदाय की आस्था पर आघात सभ्य समाज में स्वीकार नहीं होना चाहिए। हिंदू देवी-देवताओं और भारत माता का अश्लील चित्रण करने वाले एफएम हुसैन सेकुलर बिरादरी के हीरो क्यों है?
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